राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर रहा है। इस एक सदी की यात्रा में संघ ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन यदि किसी कार्यकाल को सर्वाधिक परिवर्तनकारी माना जाए तो निस्संदेह वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का नेतृत्व सबसे अहम साबित हुआ है।
डॉ. भागवत ने 2009 में संघ की बागडोर संभाली और उस समय संगठन नई चुनौतियों और बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से जूझ रहा था। उन्होंने संगठन को न केवल आधुनिक समय के अनुरूप ढाला, बल्कि उसकी जड़ों को और मजबूत किया। उनका कार्यकाल संवाद, उदारता और व्यापक दृष्टिकोण का प्रतीक रहा है।
भागवतजी ने संघ की विचारधारा को समाज के हर वर्ग तक पहुँचाने का प्रयास किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि संघ केवल शाखाओं और स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज परिवर्तन का एक जीवंत माध्यम है। उनकी पहल पर शिक्षा, पर्यावरण, ग्राम विकास, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता जैसे विषयों पर संघ ने बड़े पैमाने पर काम किया।

उनका सबसे बड़ा योगदान ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की परिकल्पना को जन-जन तक पहुँचाना रहा। चाहे पूर्वोत्तर राज्यों में संघ का विस्तार हो या दक्षिण भारत में सामाजिक समरसता के कार्यक्रम, भागवतजी ने हर क्षेत्र में संघ की उपस्थिति और स्वीकार्यता को बढ़ाया। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक विविधता को सम्मान देते हुए उसे राष्ट्रीय एकता की डोर में पिरोने का काम किया।
भागवतजी का कार्यकाल संघ के खुलेपन का भी प्रतीक रहा। उन्होंने विभिन्न धर्मों, पंथों और सामाजिक समूहों के साथ संवाद को बढ़ावा दिया। उनके नेतृत्व में संघ ने यह संदेश दिया कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में निहित है, और यही विविधता उसे “श्रेष्ठ” बनाती है।
तकनीक और संचार के दौर में संघ को डिजिटल रूप से सक्रिय बनाने का श्रेय भी भागवतजी को जाता है। उन्होंने नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिए आधुनिक साधनों का प्रयोग किया और संगठनात्मक ढांचे को समयानुकूल बनाया।सौ साल की इस यात्रा में आरएसएस का स्वरूप और स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि मोहन भागवत का कार्यकाल संघ के इ

